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आज देखा ही नहीं निगाह भर के उसे,
लगता है यूं ही कुछ खोया सा है
आज देखा ही नहीं निगाह भर के उसे…
कुछ वक्त का तकाज़ा था तो
कुछ आहट भी न आयी उधर से,
पलके पलटी थी उधर एक बार याद है,
लेकिन कोई चाहत ही न आयी उधर से,
ये आसमां, ये मंजर
लगता है यूं ही सोया सा है,
आज देखा ही नहीं निगाह भर के उसे,
लगता है यूं ही कुछ खोया सा है
आज देखा ही नहीं निगाह भर के उसे…
कसूर उसका भी नहीं ये वक्त ही कुछ ऐसा है
मांग लो एक टुकड़ा रोटी का
लगता है जन्नत मांगने जैसा है
कुछ ऐसे ही बदहवास में,
कुछ और पाने की तलाश में,
वो भी आज यूं ही मशगूल रही,
ख्वाहिशों को पाने की आश में,
मगर कैसे बताऊं उसे
ये मंजर जैसे खंजर
और न जाने क्या क्या बोया सा है
आज देखा ही नहीं निगाह भर के उसे,
लगता है यूं ही कुछ खोया सा है
आज देखा ही नहीं निगाह भर के उसे…
वैसे अच्छा नहीं है केवल औरों को ही
कसूरवार ठहराना,
अपने को ही अच्छा और दूसरे को
दोषी बतलाना,
मैं भी तो ऐसे ही मशगूल था
कुछ की चाह में,
छिन, पल, घंटों बीत गया
दिन का पता ही न चला
उस राह में,
हो सकता है उसका इशारा भी आया हो,
पल पल गुजरें हो मेरी एक नजर को
जो मैं चाहता हूं वो नजारा भी आया हो,
लेकिन अब ये डेरा, ये बसेरा
यूं ही रोया सा है,
आज देखा ही नहीं निगाह भर के उसे,
लगता है यूं ही कुछ खोया सा है
आज देखा ही नहीं निगाह भर के उसे…
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