दरिया से होते हुए समंदर में: एक ख्वाब -1

दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था,
मालूम नहीं था मुझे यहीं आकर मिलना था।
दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था….

उस आग के झोकों ने कुछ नहीं बिगाड़ा मेरा,
फूलों की खुशबू ने कुछ नहीं संवारा मेरा।
मैं थपेड़ों में लहकता बहकता चला गया,
इस बवंडर को भी आकर यही फिरना था।

दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था,
मालूम नहीं था मुझे यहीं आकर मिलना था।
दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था….

मंजर भी खूबसूरत था शायद,
पेड़ों के पत्ते भी झूम रहे थे,
मैं घिरा था उस बवंडर में,
हर पल एक नए किस्से बुन रहे थे,
मेरी सोच पर एक सोच हावी था,
क्या मैं उस बवंडर से निकल पाऊंगा,
सपने जो हजारों पंक्तियों में खड़े हैं,
क्या उनमें से एक भी पूरा कर पाऊंगा,
जब इस सपने की छाती को समंदर को ही चीरना था,
क्यों दिखे ये सपने जब यूं ही खिलना था…

दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था,
मालूम नहीं था मुझे यहीं आकर मिलना था।
दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था….

उन यादों को, उन मर्जों को सुला देना चाहता था,
राह के हर एक गम को भुला देना चाहता था,
जब इस ठहरे हुए पल में नदीश के जल में,
अम्बर के कर में यूँ ही घिरना था…

दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था,
मालूम नहीं था मुझे यहीं आकर मिलना था।
दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था….

पर खुदा भी कुछ सोच कर ये मेल कर रहा था,
अचानक एक आवाज थी “मैं खेल कर रहा था”
एक परी थी सुनहरी जब आंख मैंने खोली,
एक प्यारी सी मुस्कान और होठ पर थी बोली,
मेरी वर्षों की आशा को पंख मिलना था…

दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था,
मालूम नहीं था मुझे यहीं आकर मिलना था।
दरिया से होते हुए समंदर में गिरना था….

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